ट्रेन धीमे धीमे सरकती हुई स्टेशन छोड़ रही है........इंजन की तेज़ सीटी सी एक गहरी टीस दिल में उठी..........काश मैं पापा मम्मी का बेटा होती तो मुझे भी हमेशा उनके साथ रहने का अधिकार मिला होता......यूँ इस उम्र में उनको अकेला न छोड़ना पड़ता..........मम्मी को फ़ोन लगाया.....मम्मी ट्रेन चल दी है.........पहुँच कर फ़ोन करूंगी.........उधर से मम्मी कि आवाज़ आई........ठीक से बैठ गयीं.......बच्चे ठीक हैं........आराम से तो हो........कुछ पल का मौन........मैंने कहा.......मम्मी.......आगे कुछ न कह पायी......कुछ पल फिर से मौन में बीते.......फिर मम्मी ने कहा........बिटिया तुम मेरा घर सूना कर के चली गयी........आज दिल वैसा ही हो रहा है जैसा तुमको पहली बार विदा करते समय हुआ था...........पिछले दो हफ्ते तुम दोनों और बच्चों से घर में कितनी रौनक थी......आज तुम्हारी गाड़ी गली में मुड़ी........मैं और पापा पलट कर घर में घुसे तो एक धक्का सा लगा...........सब खाली खाली सा........जहाँ नज़र जाती हैं तुम लोगों कि ही कोई बात याद आजाती है.......फिर बोली लो पापा से बात करो.......मैंने पापा को अपना और मम्मी का ध्यान रखने के साथ साथ और भी ढेर सारी हिदायतें दे डाली........उधर से पापा हमेशा की तरह अपनी संयत आवाज़ में बोले....ठीक है.......अपने ध्यान रखना और पहुँच कर फ़ोन करना अब रखो...........पिता हैं न कैसे जताते.......पर मैं उन दोनों के दिल की पीड़ा से उनका ही अंश हो कर भला कैसे अनजान रह सकती हूँ.....आखिर मेरा दिल भी तो उसी पीड़ा से फटा जा रहा है...........
फ़ोन काट दिया........आँखें बंद कर के सर को पीछे टिका पिछले बारह दिनों को एक एक पल कर के फिर से जीती रही........अचानक एहसास हुआ कि आँखों से आसूँ बह रहे हैं.........हड़बड़ा कर उनको पोछा........इधर उधर देखा कि कहीं किसी ने देखा तो नहीं........नज़र बच्चों पर पड़ी.......उनको देख कर मैं जैसे वर्तमान में आगयी .........मायका पीछे छूटता जा रहा है..........धीरे धीरे घर के काम याद आने लगे.........कहाँ से शुरू करने है..........क्या क्या करना है.........दिल पर हाथ रख कर अपने आप से कहा............यही ज़िंदगी है..........
आँखें अब सूख चुकी हैं.........दिल अब भी भारी है...........ट्रेन अब अपनी पूरी रफ़्तार से दौड़ी जा रही है।
8 comments:
एक अच्छी रचना जो दिल को छू गयी बहुत बहुत बधाई
बेटी सालों बाद भी जब मायके से विदा होती है तो दोनों ओर वैसी ही टीस उठती है, जैसी पहली विदाई में... बचपन जहाँ बीतता है, वो कभी भी नहीं भूलता ... बहुत सुन्दरता से अभिव्यक्त किये हैं आपने एक बेटी के भाव उसके उद्गार...
एहसासों को बहुत खूबसूरती सेलिखा है...हर बेटी के मन के और हर माता पिता के मन के भावों को सहेजा है....
kahin khushi to kahin gam........
aap jinko chhod ke aayeee, wo anshu me beshak dube honge..........lekin jaha ja rahi honge.........wahan chahkegi khushiyan........
god bless!!
kabhi hamare blog pe aaiye
ऐसा ही होता है शिखा जी। दीदी की शादी को 15 साल हो गए। मां आज भी फोन पर बात करते हुए इस तरह सीख देती हैं जैसे घर पर हो और बेटी कहीं घूमने गई हो। दोनो भांजियां भी एकाध दिन नागा करके फोन करती रहती हैं। जैसे लगता है हमेशा घर में ही रहती हैं। दीदी आज भी फोन पर वैसे ही धमकाती है औऱ मैं ऐसे ही अक्सर कान बंद कर लेता हूं। कुछ भी तो नहीं बदला है। उल्टा बच्चे औऱ जिंदगी में जुड़ गए हैं....
कहां हैं आप? सब ठीक तो है न। कोई रचना नहीं।
आदरणीया शिखा दीपक जी
नमस्कार !
विदाई लघुकहानी बहुत पसंद आई , एकदम अपनी ही निजी यादों से जुड़ी हुई …
माता पिता की चिंता अपनी औलाद के प्रति ऐसी ही होती है …
बहुत आभार …
बधाई …
शुभकामनाओं सहित …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
पीयूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में----- लगा कि शायद "कामायनी" की नारी अपना सर्वस्व न्यौछावर करती हुई परिवार चलाती है. सही कहा है कि आदमी में औरत के ये गुण होते तो वह भगवान बन जाता . पढ़कर अच्छा लगा , धन्यवाद
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